सैय्यद शाह मोहम्मद शमीम फारूकी का नाम है। वह 25 दिसम्बर 1943 को पैदा हुए और उनका जन्म बिहार के मशहूर बस्ती, बेहता शरीफ में हुआ था। उनके वालिद का नाम सैय्यद क़ासिमुद्दीन अहमद था। शमीम फारूकी ने रांची यूनिवर्सिटी से उर्दू अदब में एम ए किया और इंडियन ब्रॉडकास्टिंग सर्विस में 34 साल मुलाज़मत करके 31 दिसम्बर 2002 को सेवानिवृत्त हो गए।
इस दौरान, उन्होंने आकाशवाणी पटना और आकाशवाणी दरभंगा में प्रोग्राम एग्जीक्यूटिव करने के इलावा कई और अहेदों पर कामयाबी हासिल की। वह एक खुश-फिक्र और मातबर वमुस्तनद शायर थे। उनका एक शायरी मजमूआ ‘ज़ायक़ा मेरे लहू का’ शायद हो कर मशहूर हो चुका है।
शमीम फारूकी 29 अगस्त 2014 को पटना में इंतेकाल कर गए।
सैय्यद शाह मोहम्मद शमीम फारूकी, आपकी शख्सियत और अदबी खिदमत हमेशा याद की जाएगी। उनकी शायरी और खिदमत उर्दू अदब के लिए हमेशा यादगार रहेगी।
Shamim Farooqui ki gazal
मौला, कितनी घटना है, कितना अज़-तरब है मौला,
हमारे सर पे ये कैसा अज़ाब है मौला।
सुना था मैंने यही दिन हैं फूल खिलने के,
मेरे लिए तो ये मौसम खराब है मौला।
कोई बताए हमारी समझ से बाहर है,
किसे गुनाह कहें, क्या सवाब है मौला।
अज़ल से तेरी ज़मीं पर खड़े हैं तेरे ग़ुलाम,
सरों पे उनके वही आफ़ताब है मौला।
गुनाह जितने भी मेरे हैं सब शुमार में हैं,
तेरा करम तो मगर बे-हिसाब है मौला।
कुछ और ज़िल्लत और रुसवाईयां मक़दर हूँ,
शमीम, वैसे भी खाना खराब है मौला।
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Second Gazal
जो भी कहना हो वहां मेरी ज़ुबानी कहना
लोग कुछ भी कहें, तुम आग को पानी कहना।
आज वह शख्स ज़माने में है यक्ता कह दो
जब कोई दूसरा मिल जाए तो सानी कहना।
ग़म अगर पलकों पे थम जाए तो आंसू कहिए
और बह जाए तो मौजों की रवानी कहिए।
जितना जी चाहे उसे आज हक़ीक़त कह लो
कल उसे मेरी तरह तुम भी कहानी कहना।
अब तो धुंधला गया यादों का हर एक नक्श शमीम
फिर वह दे जाए कोई अपनी निशानी कहना।
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