सैय्यद मुहम्मद ज़ुल्फ़िकार हुसैन रिज़वी नाम से मशहूर थे। आप 25 दिसंबर 1934 को बरेली में पैदा हुए थे। हिंदुस्तान की तक़सीम के बाद पाकिस्तान चले गए और लाहौर में कायम पज़ीर हुए। 21 मई 1991 को लाहौर में इंतिक़ाल कर गए।
आपका शायरी मजमूआ ‘लहू चांद और सवेरा’ के नाम से शाया हुआ है।
आपकी दूसरी तसनीफ़ के नाम यह हैं:
- ताबा ख़ाक कर्बला,
- रौशनी (नात),
- नूर (मंक़बत हज़रत फ़ातिमा),
- टुकड़े टुकड़े आदमी।
Saif Zulfi Shayari
शायद नहीं कि शोला-ए-ग़म से करें गिराज़,
हर ज़ख़्म है क़ुबूल नई बात की तरह।
लहजे का रंग लफ़्ज़ की ख़ुशबू भी देख ले,
आ मुझ से कर कलाम मुझे भी देख ले।
काग़ज़ पे आग लग रहा है नफ़्रत,
कम ज़र्फ़ अदब हो गया है।
चिंगारियाँ न डाल मेरे दिल के घाओं में,
मैं ख़ुद ही जल रहा हूँ ग़मों के आलाओं में।
एहसास में शदीद तलातुम के बावजूद,
चुप हूँ मुझे सुकून मसर हो जिस तरह।
अब क्या गिला करें के मुक़द्दर में कुछ न था,
हम ग़ौता ज़न हुए तो समंदर में कुछ न था।
वीरानियों का किस से गिला कीजिये के दिल,
इतना उदास है के लुटा घर हो जिस तरह।
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बैहक़ हवस से क्यूं किया काफ़िर का सार,
हर आशना ग़म का दरवेश के बराबर हो।
ज़ुल्फ़ों की तेह ज़मीं तक चली आई है,
ज़ुल्फ़ों की तेह से तारा भी निकल आया है।
ज़ुल्फ़िक़ार, ग़ालिब मैंने फ़रमाया था,
तुम्हारी कहक़ाशें बदल गई, सारा दिन।
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