Momin khan Momin in Hindi| Momin khan Momin

हकीम मोमिन ख़ान मोमिन उर्दू के कुछ बेहतरीन शाइरों में से एक हैं, जिनकी वजह से उर्दू ग़ज़ल को बहुत शोहरत और मशहूरी मिली है। मोमिन ने इस सेना को ऐसा उरूज़ दिया और ऐसे उस्तानीया जो ग़ालिब जैसे ख़ुदग़र्ज़ शा’एर उनके एक शे’र पर अपना दीवान क़ुर्बान करने को तैयार हो गया। मोमिन ग़ज़ल के पहले सफ़े-आवल के शा’एर हैं।

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उन्होंने उर्दू शाइरी की दूसरी अस्नाफ, क़सीदे और मसनवी में भी कोशिश की, लेकिन उनका असल मैदान ग़ज़ल है जिसमें वह अपनी तर्ज़ के वाहिद ग़ज़लगो हैं। मोमिन का कारनामा ये है कि उन्होंने ग़ज़ल को उस के असल मफ़हूम में बर्ता और ख़ारजियत का इजहार दाख़िलियत के साथ करते हुए एक नए रंग की ग़ज़ल पेश की। इस रंग में वह जिस बुलंदी पर पहुँचे वहाँ उनका कोई मुद्दमक़ाबिल नज़र नहीं आता।

Momin khan Momin

हकीम मोमिन ख़ान मोमिन का ताल्लुक एक कश्मीरी घराने से था। उनका असल नाम मुहम्मद मोमिन था। उनके दादा हकीम मदार ख़ान शाह आलम के आहद में दिल्ली आए और शाही तिब्बीयों में शामिल हो गए। मोमिन ख़ान मोमिन, दिल्ली के कूचा चेलान में 18 जनवरी 1801 में पैदा हुए, उनके दादा को बादशाह की तरफ़ से एक जागीर मिली थी जो नवाब फ़ैज़ ख़ान ने ज़ब्त करके एक हज़ार रुपये सालाना पेंशन मुक़र्रर कर दी थी।

यह पेंशन उनके ख़ानदान में जारी रही। मोमिन ख़ान का घराना बहुत मज़हबी था। उन्होंने अरबी तालीम शाह अब्दुल क़ादिर देहलवी से हासिल की। फ़ारसी में भी उनको महारत थी। दिनी इल्म की तालीम उन्होंने मकतब में हासिल की, इल्म मुतदाविला के अलावा उनको तिब, रमल, नुज़ूम रीज़ाई, शतरंज़, और मौसीकी से भी दिलचस्पी थी, जवानी में क़दम रखते ही उन्होंने शाइरी शुरू कर दी थी और शाह नसीर से इस्लाह लेने लगे थे, लेकिन जल्द ही उन्होंने अपनी मुश्क और जज़्बात के रास्ते बयां करके दिल्ली के शाइरों में अपनी ख़ास जगह बना ली।

मोमिन ख़ान ख़ान की ज़िंदगी और शाइरी पर दो चीज़ें ने बहुत गहरा असर डाला है। एक उनकी रंगीन मिज़ाजी थी और दूसरी उनकी मज़हबीयत। लेकिन उनकी ज़िंदगी का सब से दिलचस्प हिस्सा उनके मोहब्बतों हैं। मोहब्बत ज़िंदगी का तलज़ुम बन कर बार बार उनके दिल और दिमाग़ पर छाती रही।

उनकी शाइरी पढ़ कर महसूस होता है कि शा’एर किसी ख़याली नहीं, बल्कि एक जीती जागती महबूबा के इश्क़ में गिरफ़्तार है। दिल्ली का हुस्न-परवर शहर इस पर मोमिन ख़ान की रंगीन मिज़ाजी, ख़ुद ख़ूबसूरत और खुश लिबास, का असर था, नतीजा ये था कि उन्होंने बहुत से शिकार पकड़े और ख़ुद कम शिकार होए।

“ऐ ग़ज़ल, चश्म सदा मेरे दाम में
सैयाद ही रहा मैं, गिरफ़्तार कम हुआ

उनके कुलियात में छे मसनवियाँ मिलती हैं और हर मसनवी किसी मोहब्बत का बयान है। नह जाने और कितने मोहब्बतें होंगी जिनको मसनवी की शक्ल देने का मौका नहीं मिला होगा। मोमिन की महबूबाओं में से सिर्फ़ एक का नाम मालूम हुआ। ये थे उम्ते अल-फातिमा जिन का तख़ल्लुस “साहिब जी” था। मोसूफ़ा पूरब की पश्चिमी तवाइफ़ थीं जो इलाज के लिए दिल्ली आई थीं। मोमिन हक़ीम थे लेकिन उनकी नब्ज़ देखते ही खुद उनके बीमार हो गए। मुतादिद मोहब्बतें मोमिन के मिज़ाज के तलव्वुन का भी पता देते हैं। इस तलव्वुन की झलक उनकी शायरी में भी है, कभी तो वह कहते हैं, ‘इस नक़्श पा के सजदे ने किया किया किया ज़िलील, मैं कूचा-ए-रिवाल में भी सर के बाल गया।

Momin khan Momin Sher

माशूक़ से भी हम ने निभाई बराबरी
वहां लुत्फ़ कम हुआ तो यहां प्यार कम हुआ।”

मोमिन के यहां एक ख़ास किसम की शान-ए-इस्तिग़ना थी। माल ओ ज़र की तलब में उन्होंने किसी का क़सीदा नहीं लिखा। उनके नौ क़साइदों में से सात मज़हबी नौआएत के हैं। एक क़सीदा उन्होंने राजा पटियाला की शान में लिखा। दूसरा क़सीदा नवाब टोंक की खिदमत में नहीं पहुंच पाने का माज़रतनामा है। कई रियासतों के नवाबें उनको अपने यहां बुलाना चाहते थे लेकिन वह कहीं नहीं गए। दिल्ली कॉलेज की प्रोफेसरी भी नहीं क़ुबूल की।

यह इस्तिग़ना शायद उस मज़हबी माहौल का असर हो जिसमें उनकी परवरिश हुई थी। शाह अब्दुल अज़ीज़ के ख़ानदान से उनके ख़ानदान के गहरे मरासिम थे। मोमिन आक़ीदतन कट्टर मुसलमान थे। 1818 में उन्होंने सैय्यिद अहमद बरेलवी के हाथ पर बय’त की लेकिन उनकी जिहाद की तहरीक में ख़ुद शरीक नहीं हुए।

लेकिन जिहाद की हिमायत में उनके कुछ शेर मिलते हैं। मोमिन ने दो शादियाँ कीं, पहली बीवी से उनकी नहीं बनी फिर दूसरी शादी ख्वाजा मीर दर्द के ख़ानदान में ख्वाजा मुहम्मद नसीर की बेटी से हुई। मौत से कुछ अरसा पहले वह इश्क़ बाज़ी से किनारा कश हो गए थे। 1851 में वह कोठे से गिरकर बुरी तरह ज़ख़्मी हो गए थे और पाँच महीने बाद 14 मई 1852 को उनका इंतिक़ाल हो गया।

मोमिन के शाइराना मरतबा के मुतल्लिक अक्सर नुक़्काद मुतफ़िक हैं कि उन्हें क़सीदा, मसनवी और ग़ज़ल पर यक्सान क़ुदरत हासिल थी। क़सीदों में वह सौदा और ज़ौक़ के मरतबा को नहीं पहुंचते ताहम इस में शक नहीं कि वह उर्दू के कुछ अच्छे क़सीदा-गो शाइरों में शामिल हैं।

मसनवी में वह दिया शंकर नसीम और मिर्ज़ा ग़ालिब के हम-पला हैं लेकिन मोमिन की शाइराना आज़मत का इंहिसार उनकी ग़ज़ल पर है। एक ग़ज़लगो की हैसियत से मोमिन ने उर्दू ग़ज़ल को उन ख़ास सिफ़ात का हामिल बनाया जो ग़ज़ल और दूसरी असनाफ में इम्तियाज़ पैदा करती हैं।

मोमिन की ग़ज़ल तग़ज़्ज़ुल की शोख़ी, शग़फ़्तगी, तंज़ और रम्ज़ियत की बेहतरीन तरजुमान कही जा सकती है। उनकी मोहब्बत जिनसी मोहब्बत है जिस पर वह पर्दा नहीं डालते। पर्दा नशीन तो उनकी मोहब्बत है। इश्क़ की वादी में मोमिन जिन जिन हालात और किफ़ायत से गुज़रे उनको ख़लूस और सदाक़त के साथ शेरों में बयान कर दिया।

हुस्न ओ इश्क़ के ख़ुद्दोख़ाल में उन्होंने तख़य्युल के जो रंग भरे वह उनकी अपनी ज़हनी अपच है। उनके अच्छे तख़य्युल और ऩराले अंदाज़ बयान ने पुराने और फ़रसूदा मज़ामीन को अज़ सर नू ज़िन्दा और शग़ुफ़्ता बनाया। मोमिन अपने इश्क़ के बयान में इब्तिदाल नहीं होने देते। उन्होंने लखनवी शायरी का रंग इख्तियार करते हुए दिखाया कि ख़ारिजी मज़ामीन भी तहज़ीब और मुतानत के साथ बयान किए जा सकते हैं और यही वह तरह-ए-इम्तियाज़ है जो उनको दूसरे ग़ज़लगो शाइरों से मुमताज़ करता है।

Momin khan Momin Shayari in Hindi

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता…

उम्र तो सारी कटी इश्क बातों में मोमिन
आखिरी वक़्त में क्या खाक मुसलमां होंगे…

वह जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद हो के नह याद हो
वही यानी वादा निभाह का तुम्हें याद हो के नह याद हो…

क्या जाने क्या लिखा था उसे इज़्तेराब में
क़ासिद की लाश आई है ख़त के जवाब में…

चल दिए सोए हरम कोए बतां से मोमिन
जब दिया रंज बतौं ने तो ख़ुदा याद आया…

मांगा करेंगे अब से दुआ हिज्र यार की
आखिर तो दुश्मनी है असर को दुआ के साथ…

इस नक्श पा के सजदे ने क्या क्या क्या ज़िल्लत
मैं कोच्छा-ए-रक़ीब में भी सर के बल गया…

उलझा है पानों यार का ज़ुल्फ़-ए-दराज़ में
लो, आपने दाम में सैयाद आ गया…

मजलिस में मेरे ज़िक्र के आते हैं वह
बदनामई इश्क का इज़्ज़ात तो देखो…

बहर एयादत आए वह लेकिन क़ज़ा के साथ
दम ही निकल गया मेरा आवाज़ पा के साथ…

ग़ैरों पे खुल न जाए कहीं राज़ देखना
मेरी तरफ़ भी ग़म्ज़ह-ए-ग़माज़ देखना…

तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिज्रां होंगे…

महशर में पास क्यों दम फ़रियाद आया
रहम उसने कब किया था के अब याद आया…

हो गए नाम बतां सुनते ही मोमिन बेक़रार
हम ना कहते थे के हज़रत पारसा कहने को हैं…

इजाज़ जान-दही है हमारे कलाम को
ज़िंदा क्या है हमने मसीहा के नाम को…

गो के हम सफ़हा-ए-हस्ती पे थे एक हर्फ़ ग़लत
लेकिन उठे भी तो एक नक़्श बना कर उठे…

नावक अंदाज़ जिधर दीदा-ए-जानां होंगे
नीम बस्मल कई होंगे, कई बे-जान होंगे।”

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