Maulana Muhammad Hussain Azad Taruf

Maulana Mohammad Hussain Azad, जो 5 जून 1830 को दिल्ली में पैदा हुए, उनके वालिद मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली, मौलाना शिब्ली नोमानी और सर सय्यद अहमद खान के हम आसर थे और ग़ालिब और ज़ौक़ का ज़माना देख चुके थे। उनके वालिद, मौलवी मोहम्मद बाक़र हुसैन दिल्ली कॉलेज में मुदरिस और अपने दौर के इंतिहाई फाइल अदबी और सियासी कारकुन होने के अलावा बरसगिर के पहले अख़बार नवीस थे।

Maulana Mohammad Hussain Azad

आज़ाद ने इब्तिदाई तालीम अपने वालिद گرامی से ही हासिल की, अभी उनका बचपन ही था के उनके वालिद ने उन्हें ज़ौक़ के सुपर्द कर दिया, बाद अज़ान दिल्ली कॉलेज से फ़ारिग़ तालीम हुई, यहां मौलाना आज़ाद को मौलवी नज़ीर अहमद، ज़का उल्लाह और प्यारे लाल आशुब से हम सबक होने का मौक़ा नसीब हुआ।

ज़ौक़ की क़ुर्बत ने आज़ाद के शाइरी ज़ौक़ को ख़ूब निखारा, शायद यही वजह थी के उन्होंने सब से बढ़कर अपने उस्ताद ख़्वाज़ा हनीफ़ हिन्द मोहम्मद इब्राहीम ज़ौक़ की शागिर्दी का हक़ अदा किया, वरना आज ज़ौक़ उस मक़ाम पर फ़ाइज़ नज़र नहीं आते, जहाँ हैं, ज़ौक़ के तमाम तर कलाम की हिफ़ाज़त, तर्तीब और तबाओत का सहारा मौलाना आज़ाद के सर है।

मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद की किताब “आब-ए-हयात” उर्दू अदब की माया-ए-नाज़ तस्नीफ है, जो सिर्फ शाइरों-ए-उर्दू का तज़किरा ही नहीं बल्कि उर्दू शायरी की पहली मुकम्मल और मुबस्सिर तारीख भी है। आज़ाद ने उर्दू नसर को नए उस्लूब और आहंग से रौशन किया और फ़न तारीख निगारी में ममताज़ मकाम हासिल किया। उनके उच्छोटे अंदाज़ ने उन्हें ऐसे मकाम तक पहुंचा दिया कि कोई अदीब भी आज तक उनकी तक़ल्लुद करने में कामयाब नहीं हो सका।

1836 में मौलाना मोहम्मद हुसैन आज़ाद के वालिद मौलवी मोहम्मद बाक़र हुसैन ने दिल्ली से पहले उर्दू अख़बार का इज़्रा किया, 1854 में मौलाना आज़ाद भी इसमें बतौर मुदीर शरीक हो गए, 1857 की जंग-ए-आज़ादी के ज़माने में उनके अख़बार ने अंग्रेज़ साम्राज्य के ख़िलाफ़ धुआं धार मज़मीन शाइर किए, ताहम अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बग़ावत मुकम्मल तौर पर नाकाम रही और उसके बाद पकड़ ढक्कड़ शुरू हो गई और इसी सिलसिले में आज़ाद के वालिद गिरफ्तार कर लिए गए और अंग्रेज़ों ने उन्हें तोप के साथ उड़ा कर शहीद कर दिया।

मौलाना आज़ाद अपने वालिद की शहादत के बाद छुपते छुपाते दिल्ली से निकले और बिना राह जाने किसी सिम्त पैदल रवाना हो गए, रास्ते में कोई कुछ दे देता तो खा लेते, किसी मस्जिद में रात गुज़ारते, आख़िरकार कई दिन की मुसाफ़त के बाद लखनऊ पहुंचे और यहीं रहने लगे। आज़ाद की यहां मीर अनीस से भी मुलाक़ात हुई, मीर ताक़ी मीर और मिर्ज़ा सौदा के बच्चे वहां रहते थे, उन से मिले और फिर अदबी तख़ल्लुकात की तरफ़ माइल हुए।

1864 में लखनऊ से कुछ पैसे जमा करने के बाद आज़ाद एक बार फिर नई मंजिल की तलाश में रवाना हुए और कुछ दिन लुधियाना में क़ायम किया, फिर लाहौर पहुंच गए और यहां अपने अहल-ए-ख़ाना को भी बुला लिया, यहां उनकी मुलाकात मौलवी रजब अली से हुई, जिन की सिफ़ारिश पर मौलाना आज़ाद बर-सग़ीर पाक-वहन्द के माए नाज़ तालीमी इदारे, गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में पंद्रह रुपए माहवार पर मुलाज़म हो गए और यूं दबस्तान-ए-लाहौर में आकर आज़ाद को अपने फ़न के जोहर दिखाने का मौक़ा मिलने लगा।

लाहौर में क़ायम का दौर मौलाना आज़ाद की ज़िंदगी का सरकारी, अदबी और तस्नीफी दौर कहलाया और इसी दौर में उन्होंने फ़ारसी और उर्दू क़वाइद की कई किताबें के अलावा “सफ़रनामा-ए-इरान”, “आमोज़ गार पारसी”, “लुग़त-ए-आज़ाद” और “क़िस्से-उल-हिन्द” जैसी तसनीफ़ भी लिखीं।

1873 में कर्नल हैलयर्ड ने अंजुमन पंजाब क़ायम की और एक ख़ास किसम के मुशाइरों की बुनियाद डाली, जिसमें उस दौर में राज मुक़र्रर तरह की बजाए नज़्म लिखने के लिए उनवान दिया जाता था। उन मुशाइरों में मौलाना आज़ाद बढ़ चढ़ कर साथ हिस्सा लेते रहे और मुल्तफिद अख़लाकी और नैचुरल नज़्मियां लिखीं, लाहौर में उनकी उस वक़्त के तमाम अहल-ए-अदब से मुलाक़ातें रहीं, तहम मौलाना आज़ाद इसी दौरान कई बार दिल्ली जा कर सर सईद अहमद ख़ान से भी मिले, ग़रज़ उस वक़्त के दानिशवरों में आज़ाद का नाम सब से नमायन हुआ।

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मलिका विक्टोरिया के पाँच साले जश्न के मौक़े पर मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद को शम्स उल उलमा का ख़िताब आता हुआ, आज़ाद अपने मुआसिरीं में पहले आदमी थे, जिन को यह इज़ाज़ आता हुआ था।

मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद 22 जनवरी 1910 की शब को क़ैद-ए-जुनून से आज़ाद होकर ख़ालिक़ हक़ीक़ी से मिले।

Maulana Mohammad Hussain Azad का जब जनाजा उठा, तो ऐसा लगता था कि सारा शहर आ गया हो, मौलाना आज़ादऔ के जनाजे के दिन तमाम सरकारी और गैर सरकारी मदारिस में छुट्टी का ऐलान कर दिया गया और तमाम ilm व adab उन के जनाजे में शामिल होए। उनकी वफात के दूसरे दिन क्योंकि आशुरा महरम था, इस लिए तफ़्तीश तीसरे दिन हुई, दाता दरबार के आख़िब में गामे शाह क़ब्रिस्तान में उनकी तफ़्तीश हुई और इस तरह अलम व अदब के एक सोने दौर का इख्तियार हुआ, मौलाना हाली ने Maulana Mohammad Hussain Azad का क़टीह ِतारीख़ इस तरह लिखा है:

आज़ादऔ वह दरियाए सुख़न का दर यकता
जिस की सुख़न आराई पे इज्माआ था सब का

हर लफ़्ज़ को मानेंगे फ़साहत का नमूना
जो उस के क़लम से दम तहरीर है टपका

मुल्कों में फिरा मुदतों तह्क़ीक़ की ख़ातिर
छोड़ा ना दक़ीक़ा भी कोई रंज ओ ताब का

देखा ना सुना ऐसा कहें अहले क़लम में
तसनीफ़ का तह्क़ीक़ का तदवीन का लिपका

सेहत में उलालत में इक़ामत में सफ़र में
हिम्मत थी बला की तो इरादा था ग़ज़ब का

फ़र्ज़ अपना अदा कर के कई साल से मुश्ताक़
बैठा था के आए कहीं पैग़ाम तलब का

आख़िर शब ए आशूर को थी जिस की तमन्ना
आ पहुंचा नसीबों से बुलावा उसे रब का

तारीख़ वफ़ात उस की जो पूछे कोई हाली
कह दो के हुआ ख़ातिमा उर्दू के अदब का

Maulana Muhammad Hussain Azad Poetry

हे आफ़ताब, मोहब्बत-ए-वतन तू कहाँ है आज
तू है कहाँ कि कुछ नहीं आता नज़र है आज

तुझ बिन जहाँ है आंखों में अंधेरा हो रहा
और इंतज़ाम दिल है ज़बर ज़ीर हो रहा

ठंडे हैं क्यों दिलों में तेरे जोश हो गए
क्यों सब तेरे चिराग हैं ख़ामोश हो गए

मोहब्बत-ए-वतन की जिंस का है कह्क़शाल क्यों
हैरां हूँ आज कल है पड़ा इस का काल क्यों

कुछ हो गया ज़माना का उलटा चलन यहाँ
मोहब्बत-ए-वतन के बदले हैं बग़वत-ए-वतन यहाँ

बन तेरे मुल्क हिंद के घर बे चिराग हैं
जलते उवेज़ चिराघों के सीनों में दाग़ हैं

कब तक शब सियाह में आलम तबाह हो
ऐ आफ़ताब इधर भी करम की निगाह हो

आलम से ता के तेरा दिली दूर हो तमाम
और हिंद तेरे नूर से ममूर हो मदाम

उल्फ़त से गरम सब के दिल सर्द हों भी
और जो के हम वतन हैं वो हमदर्द हों भी

ता हो वतन में अपने ज़र ओ माल का वफ़ूर
और मुमल्लिकत में दौलत ओ इक़बाल का वफ़ूर

सब अपने हाकिमों के लिए जान निसार हों
और गर्दन हरीफ़ पे ख़ंजर की धार हों

इल्म ओ हुनर से ख़ल्क़ को रौंक़ दिया करें
और अंजुमन में बैठ के जलसे किया करें

लबरेज़ जोश-ए-मोहब्बत सब के जाम हों
सरशार ज़ौक़ ओ शौक़ दिल ख़ास ओ आम हों

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