आपका नाम अहमद अली है और क़लमी नाम बर्क़ी आज़मी है। आप 25 दिसंबर 1954 को राज्य उत्तर प्रदेश के शहर अज़मगढ़ में पैदा हुए। वालिद साहब रहमतुल्लाह बर्क़ी आज़मी दबिस्तान दाग़े दहलवी से तालुक रखते थे और ख़ुद भी एक बाकामल उस्ताद शायर थे।
अहमद अली बर्क़ी आज़मी ने अपनी तालीम इब्तिदाई से लेकर कॉलेज तक शिबली कॉलेज अज़मगढ़ में मुकम्मल की। वहां से उर्दू में एम ए मास्टर्स करने के बाद साल 1977 में वह दिल्ली चले आए और वहां जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी से फ़ारसी में एम ए और पी एच डी डिग्री हासिल की। और 1983 में आल इंडिया रेडियो के शोभा-ए-फ़ारसी से मुनसलिक हुए और 31 दिसंबर 2014 को मुलाज़मत से सबकदोश हुए।
बर्क़ी साहब ने अपने वालिद मोहतरम जनाब रहमतुल्लाह बर्क़ आज़मी, जो दियार शिबली के एक बाकामल साहब तर्ज़ उस्ताद सख़न थे, से कस्ब फ़ैज़ और शाइरी तरबीयत हासिल की। बर्क़ी आज़मी का अपना एक मख़सूस लब और लहज़ा था जो उनके शौर, फ़िक्र ओ फ़न की शनाख़्त थी।
बर्क़ी आज़मी ने अपना शाइरी सफ़र मवदूआती शाइरी से शुरू किया और 2003 से 6 साल तक उनकी मवदूआती नज़्में साइंस, तिब, हालात-ए-हाज़िरा, आफ़ात-ए-अर्दी ओ समावी जैसे ग्लोबल वार्मिंग, त्सुनामी और ज़िल्ज़ले वगैरह से मुतालिक दिल्ली से शाया होती रहीं। बाद अज़ान बाक़ैदा उर्दू ग़ज़ल निगारी की तरफ़ तवज़्ज़ो की और इंटरनेट के वसीले से उनकी ग़ज़लें और नज़्में लोगों की लुत्फ़-काम ओ दिहन का सामान फ़राहम करती हैं।
बर्क़ी आज़मी उर्दू की मुक्तलिफ वेब साइट्स और अदबी फोरम से किसी न किसी हैसियत से वाबस्ता थे और उनका कलाम उर्दू की बेशतरीन वेब साइट्स पर देखा जा सकता है।
बर्क़ी आज़मी ज़िद्दीद उर्दू ग़ज़ल में, ग़ज़ल मुसल्सल को फ़रोग़ देने में एक नुमायां किरदार अदा किया है। बह अल्फ़ाज़ दूसरे कह सकते हैं कि बर्क़ी आज़मी को ग़ज़ल-ए-मुसल्सल लिखने पर गैर मामूली महारत हासिल थी। उनको फ़ि अलबदियाह ग़ज़लें और मन्ज़ूम तासिरात लिखने पर भी कुदरत हासिल थी।
आप 5 दिसंबर 2022 को सुबह 4 बजे दिल का दौरा पढ़ने से जौनपुर, यूपी में इंतिक़ाल कर गए। तद्फ़ीन उनके आबाई वतन अज़मगढ़, मोहल्ला कोट में आमल में आई।
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Ahmad Ali Barqi Azmi ke chand shayari
हुआ करबला में जो क़ुर्बानी बर्क़ी
हुसैन इब्न हैदर का वह ख़ानदान था।
रूठने और मनाने के एहसास में है एक कैफ़ ओ सुरूर
मैंने हमेशा उसे मनाया, वह भी मुझे मनाए तो।
इस हाल में कब तक यूं ही घट घट के जियूंगा
रूठा है वह ऐसे के मना भी नहीं सकता।
अब मैं हूँ और ख़्वाब परेशान है मेरे साथ
कितना पड़ेगा और अभी जागना मुझे।
अजब ख़ूंचकां करबला का समां था
थे सब तिश्ना लब और दरिया रवां था।
ज़िंदगी ने बदल कर मेरी रख दी ऐसी
न मुझे चैन न आराम है, क्या अर्ज़ करूँ।
चुपके चुपके उस की गली का रहा है मेरे ज़ैर-ए-क़दम
जोश-जुनूं से अज़्म सफ़र तक एक कहानी बीच में है।
सिसकते थे बच्चे, बिकती थीं माएँ
जो इंसान भी प्यास से नातवां था।
समझ रहा था जिसे ख़ैर-ख़्वाह मैं अपना
वही है दुश्मन जान मेरा, सब से बढ़ कर आज।
मेरी आँखें खुली कि खुली रह गईं
वह नज़र आया जब एक ज़माने के बाद।
देखा था जो भी ख़्वाब में अब क्या है कुछ नहीं
इस हसीन और शबाब में अब क्या है कुछ नहीं।
वह भूल गया मुझ से बरसों की शनासाई
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।
हंसा के पहले मुझे फिर रुला गया एक शख़्स
फ़साना कह के फ़साना बना गया एक शख़्स।
ज़ख़्म जो तू ने दिए थे हैं अभी तक ताज़ा
जब चली सर्द हवा में, मैंने तुझे याद किया।
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